पूर्ण व्यायाम है सूर्य नमस्कार, जानें इसके फायदे, आसन और विधियां
सेहतराग टीम
सूर्य नमस्कार को सभी योगासनों में श्रेष्ठ माना जाता है, इसे सर्वांग व्यायाम भी कहते हैं। अगर कोई व्यक्ति केवल इसी का ही नियमित रूप से अभ्यास करता रहे तो उसे सम्पूर्ण योग का लाभ एक साथ मिलेगा। इसके अभ्यास से व्यक्ति का शरीर रोगों से मुक्त होकर सूर्य की किरणों के समान तेजस्वी हो जाता है।
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सूर्य नमस्कार कब करें (Surya namskaar Kab Karen)
सुबह सूर्योदय के समय सूर्य नमस्कार करना बहुत ही अच्छा माना जाता है। इसे हमेशा खुली हवादार जगह पर चटाई का आसन बिछाकर खाली पेट अभ्यास करना चाहिए। साथ इसे करते समय मन को शांत और प्रसन्न रखना चाहिए, जिससे योग का अच्छा प्रभाव मिलता है।
सूर्य नमस्कार करने से मानसिक और शारीरिक दोनों तरह के लाभ मिलते हैं। साथ ही आपकी विचारशक्ति और स्मरणशक्ति में कमाल का परिवर्तन होगा। इसके अलावा दुसरे लाभ इस प्रकार हैं।
- सभी महत्त्वपूर्ण अवयवों में रक्तसंचार बढता है।
- सूर्य नमस्कार से विटामिन-डी मिलता है जिससे हड्डियां मजबूत होती हैं।
- आँखों की रोशनी बढती है।
- शरीर में खून का प्रवाह तेज होता है जिससे ब्लड प्रेशर की बीमारी में आराम मिलता है।
- सूर्य नमस्कार का असर दिमाग पर पडता है और दिमाग ठंडा रहता है।
- पेट के पासकी वसा (चरबी) घटकर भार मात्रा (वजन) कम होती है जिससे मोटे लोगों के वजन को कम करने में यह बहुत ही मददगार होता है।
- बालों को सफेद होने झड़ने व रूसी से बचाता है।
- क्रोध पर काबू रखने में मददगार होता है।
- कमर लचीली होती है और रीढ की हडडी मजबूत होती है।
- त्वचा रोग होने की संभावना समाप्त हो जाती है।
- हृदय व फेफडोंकी कार्यक्षमता बढती है।
- बाहें व कमरके स्नायु बलवान हो जाते हैं।
- कशेरुक व कमर लचीली बनती है।
- पचनक्रिया में सुधार होता है।
- मन की एकाग्रता बढती है।
- यह शरीर के सभी अंगों, मांसपेशियों व नसों को क्रियाशील करता है।
- इसके अभ्यास से शरीर की लोच शक्ति में आश्चर्यजनक वृद्धि होती है। प्रौढ़ तथा बूढे़ लोग भी इसका नियमित अभ्यास करते हैं तो उनके शरीर की लोच बच्चों जैसी हो जाती है।
- शरीर की सभी महत्वपूर्ण ग्रंथियों, जैसे पिट्यूटरी, थायरॉइड, पैराथायरॉइड, एड्रिनल, लीवर, पैंक्रियाज, ओवरी आदि ग्रंथियों के स्रव को संतुलित करने में मदद करता है।
- शरीर के सभी संस्थान, रक्त संचरण, श्वास, पाचन, उत्सर्जन, नाड़ी तथा ग्रंथियों को क्रियाशील एवं सशक्त करता है।
- पाचन सम्बन्धी समस्याओं, अपच, कब्ज, बदहजमी, गैस, अफारे तथा भूख न लगने जैसी समस्याओं के समाधान में बहुत ही उपयोगी भूमिका निभाता है।
- वात, पित्त तथा कफ को संतुलित करने में मदद करता है। त्रिदोष निवारण में मदद करता है।
- इसके अभ्यास से रक्त संचालन तीव्र होता है तथा चयापचय की गति बढ़ जाती है, जिससे शरीर के सभी अंग सशक्त तथा क्रियाशील होते हैं।
- इसके नियमित अभ्यास से मोटापे को दूर किया जा सकता है और इससे दूर रहा भी जा सकता है।
- इसका नियमित अभ्यास करने वाले व्यक्ति को हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, निम्न रक्तचाप, मधुमेह, गठिया, कब्ज जैसी समस्याओं के होने की आशंका बेहद कम हो जाती है।
- मानसिक तनाव, अवसाद, एंग्जायटी आदि के निदान के साथ क्रोध, चिड़चिड़ापन तथा भय का भी निवारण करता है।
- रीढ़ की सभी वर्टिब्रा को लचीला, स्वस्थ एवं पुष्ट करता है।
- पैरों एवं भुजाओं की मांसपेशियों को सशक्त करता है। सीने को विकसित करता है।
- शरीर की अतिरिक्त चर्बी को घटाता है।
- स्मरणशक्ति तथा आत्मशक्ति में वृद्धि करता है।
सूर्य नमस्कार के 12 आसन होते हैं जो इस प्रकार हैं।
- प्रणामासन
- हस्त उत्तानासन
- उत्तानासन
- अश्व संचालनासन
- चतुरंग दंडासन
- अष्टांग नमस्कार
- भुजंगासन
- अधोमुक्त श्वानासन/पर्वतासन
- अश्व संचालनासन
- उत्तानासन
- हस्त उत्तानासन
- प्रणामासन
सूर्य-नमस्कार कैसे करें (Surya Namskaar Kaise Kren)
सूर्य नमस्कार का अभ्यास बारह स्थितियों में किया जाता है, जो की इस प्रकार हैं।
1- दोनों हाथों को जोड़कर सीधे खड़े हों। नेत्र बंद करें। ध्यान 'आज्ञा चक्र' पर केंद्रित करके 'सूर्य' का आह्वान 'ॐ मित्राय नमः' मंत्र के द्वारा करें।
2- श्वास भरते हुए दोनों हाथों को कानों से सटाते हुए ऊपर की ओर तानें तथा भुजाओं और गर्दन को पीछे की ओर झुकाएं। ध्यान को गर्दन के पीछे 'विशुद्धि चक्र' पर केन्द्रित करें।
3- तीसरी स्थिति में श्वास को धीरे-धीरे बाहर निकालते हुए आगे की ओर झुकाएं। हाथ गर्दन के साथ, कानों से सटे हुए नीचे जाकर पैरों के दाएं-बाएं पृथ्वी का स्पर्श करें। घुटने सीधे रहें। माथा घुटनों का स्पर्श करता हुआ ध्यान नाभि के पीछे 'मणिपूरक चक्र' पर केन्द्रित करते हुए कुछ क्षण इसी स्थिति में रुकें। कमर एवं रीढ़ के दोष वाले साधक न करें।
4- इसी स्थिति में श्वास को भरते हुए बाएं पैर को पीछे की ओर ले जाएं। छाती को खींचकर आगे की ओर तानें। गर्दन को अधिक पीछे की ओर झुकाएं। टांग तनी हुई सीधी पीछे की ओर खिंचाव और पैर का पंजा खड़ा हुआ। इस स्थिति में कुछ समय रुकें। ध्यान को 'स्वाधिष्ठान' अथवा 'विशुद्धि चक्र' पर ले जाएँ। मुखाकृति सामान्य रखें।
5- श्वास को धीरे-धीरे बाहर निष्कासित करते हुए दाएं पैर को भी पीछे ले जाएं। दोनों पैरों की एड़ियां परस्पर मिली हुई हों। पीछे की ओर शरीर को खिंचाव दें और एड़ियों को पृथ्वी पर मिलाने का प्रयास करें। नितम्बों को अधिक से अधिक ऊपर उठाएं। गर्दन को नीचे झुकाकर ठोड़ी को कण्ठकूप में लगाएं। ध्यान 'सहस्रार चक्र' पर केन्द्रित करने का अभ्यास करें।
6- श्वास भरते हुए शरीर को पृथ्वी के समानांतर, सीधा साष्टांग दण्डवत करें और पहले घुटने, छाती और माथा पृथ्वी पर लगा दें। नितम्बों को थोड़ा ऊपर उठा दें। श्वास छोड़ दें। ध्यान को 'अनाहत चक्र' पर टिका दें। श्वास की गति सामान्य करें।
7- इस स्थिति में धीरे-धीरे श्वास को भरते हुए छाती को आगे की ओर खींचते हुए हाथों को सीधे कर दें। गर्दन को पीछे की ओर ले जाएं। घुटने पृथ्वी का स्पर्श करते हुए तथा पैरों के पंजे खड़े रहें। मूलाधार को खींचकर वहीं ध्यान को टिका दें।
8- श्वास को धीरे-धीरे बाहर निष्कासित करते हुए दाएं पैर को भी पीछे ले जाएं। दोनों पैरों की एड़ियां परस्पर मिली हुई हों। पीछे की ओर शरीर को खिंचाव दें और एड़ियों को पृथ्वी पर मिलाने का प्रयास करें। नितम्बों को अधिक से अधिक ऊपर उठाएं। गर्दन को नीचे झुकाकर ठोड़ी को कण्ठकूप में लगाएं। ध्यान 'सहस्रार चक्र' पर केन्द्रित करने का अभ्यास करें।
9- इसी स्थिति में श्वास को भरते हुए बाएं पैर को पीछे की ओर ले जाएं। छाती को खींचकर आगे की ओर तानें। गर्दन को अधिक पीछे की ओर झुकाएं। टांग तनी हुई सीधी पीछे की ओर खिंचाव और पैर का पंजा खड़ा हुआ। इस स्थिति में कुछ समय रुकें। ध्यान को 'स्वाधिष्ठान' अथवा 'विशुद्धि चक्र' पर ले जाएँ। मुखाकृति सामान्य रखें।
10- तीसरी स्थिति में श्वास को धीरे-धीरे बाहर निकालते हुए आगे की ओर झुकाएं। हाथ गर्दन के साथ, कानों से सटे हुए नीचे जाकर पैरों के दाएं-बाएं पृथ्वी का स्पर्श करें। घुटने सीधे रहें। माथा घुटनों का स्पर्श करता हुआ ध्यान नाभि के पीछे 'मणिपूरक चक्र' पर केन्द्रित करते हुए कुछ क्षण इसी स्थिति में रुकें। कमर एवं रीढ़ के दोष वाले साधक न करें।
11- श्वास भरते हुए दोनों हाथों को कानों से सटाते हुए ऊपर की ओर तानें तथा भुजाओं और गर्दन को पीछे की ओर झुकाएं। ध्यान को गर्दन के पीछे 'विशुद्धि चक्र' पर केन्द्रित करें।
12- यह स्थिति- पहली स्थिति की भाँति रहेगी।
(यह आलेख बाबा रामदेव की किताब रोगानुसार आसन और प्रणायाम से साभार लिया गया है।)
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